Thursday 10 August 2023

 मेरी कविता बस कुछ शब्द नही

बढ़कर है कहीं उनसे

कुछ अंतस की बातें

कुछ पर्दें के पीछे की कहानियां

घटी और घट रहीं है जो

अपरिचित सी हैं अंजान कहीं

लिखना उन्हें एक आदत है

या यूं कहूं मेरे शब्दों से उनकी इबादत है

कभी कहना उन लफ्जों को बस में न था

तभी तो उन्हें जगजाहिर करने का साधन है


मैं ये न कहूं कि

मैं लिखता हूं

मैं नहीं पर लिखतें हैं ये भाव सभी

कुछ इच्छाएं 

कुछ स्मृतियां

कुछ मर्म

और कुछ स्थितियां 

सभी लिखतें हैं

मैं नहीं।

Saturday 15 September 2018

सब निरंतर अग्रसर हैं

कितना कुछ रह जाता है 
छूट जाता है 
और गुज़र भी रहा है 
पीछे 
न भरने वाले खड्ड मे समाता हुआ, 
एक अंतहीन खड्ड 
अंतहीन स्थान के साथ 

सब निरंतर अग्रसर हैं 
उनमे मैं भी हूँ 

जब तक हूँ,
अनेक स्मृति हैं 
बनीं हुई और बन रही 
गुज़रना इनका भी निश्चित है 

न होने पर 
अन्य की स्मृतियों में हूँ 
उनके स्मृतिलोप होने तक 
जब 
सब निरंतर अग्रसर हैं 

प्रशांत चौहान अंजान 

Saturday 8 September 2018

मुझे मुक्त कर दे

रोज़ मांगता हूँ उस से 
मुक्त कर दे 
मेरे "मैं " से 
मुझको मुक्त कर दे 
चेष्टा करता हूँ 
पर असफल हूँ 
मुझे मेरे "पर्दों " से मुक्त कर दे 
मैं रोता हूँ 
पर रोना भी एक पर्दा है
मुझ रोने से मुक्त कर दे 
तेरी वेदी पर अपने मैं को रख दूँ
विलीन कर अपने "मैं " में 
सब से मुझको मुक्त का दे 

प्रशांत चौहान "अंजान "







फोटो श्रेय - गूगल से साभार 

Wednesday 5 September 2018

प्रण

pc from web




















हे परम शब्द,
मेरे शब्द को अपने में स्थायित्व प्रदान कर |
समाहित कर
कि मैं गिरूं ना|
मेरी चेतना को विस्तार दे 
ताकि 
जागृत कर सकूँ 
उस परम पुंज को 
जिससे सर्जित किया है तूने 
मुझे और अन्य पुंजों को |
अपने दिव्य पुंज में 
खुद को समर्पित करने का मार्ग प्रदान कर |
विकारों की जन्मदात्री , 
मेरे अंतस के उस अंश के विध्वंश हेतु 
मुझे सहयोग प्रदान कर |
मेरे प्रण को 
अपनी उपासना का 
तुच्छ रूप समझ 
इसे संबल दे |
ढृढ़ कर मुझे 
यूँ बने रहने को |

Friday 31 August 2018

उसका भी वजूद हो ....

कितना मधुर हो सकता है ,
पाना !
जिस तरह आप सोचते हैं ,
हूबहू वैसे ही पाना |
जैसे ,
सपनो का भी वज़ूद हो |

दूर ना हो वो 
वो ख़्याली ना हो ,
उसका भी वज़ूद हो |

अनेक कहें यथार्थवादी बनो ,
न जीओ वो ,
संभव नहीं जो |

मैं ना जीऊं तो चैन नहीं !
दिल यूँ ही बेचैन सही |

मधुर रहा हैं यूँ ही जीना,
बेचैनी ने तो हक़ ना छीना |

इतना ही काफ़ी रहा ,
चूल्हा ईंधन से जलता रहा |

 प्रशांत चौहान "अंजान "









फोटो श्रेय - गूगल से साभार

पतझड़ी पात

तुमने पतझड़ी पातो को देखा होगा। प्रतीत होता है, मै भी हूँ। गिर रहा हूँ, बिना ध्येय के। ना कोई प्राण शेष है अब। सिवाय निर्जीव श्वासों ...