Thursday 10 August 2023

 मेरी कविता बस कुछ शब्द नही

बढ़कर है कहीं उनसे

कुछ अंतस की बातें

कुछ पर्दें के पीछे की कहानियां

घटी और घट रहीं है जो

अपरिचित सी हैं अंजान कहीं

लिखना उन्हें एक आदत है

या यूं कहूं मेरे शब्दों से उनकी इबादत है

कभी कहना उन लफ्जों को बस में न था

तभी तो उन्हें जगजाहिर करने का साधन है


मैं ये न कहूं कि

मैं लिखता हूं

मैं नहीं पर लिखतें हैं ये भाव सभी

कुछ इच्छाएं 

कुछ स्मृतियां

कुछ मर्म

और कुछ स्थितियां 

सभी लिखतें हैं

मैं नहीं।

Saturday 3 June 2023

 एक जिंदगी है जो मैं कभी जी नहीं पाया

कुछ सपने हैं जो कभी पा नहीं पाया

सोचा छुपें हैं सभी भविष्य के गर्भ में

कुछ साकार हुए तो उन्हें अपना ना पाया


अपना न पाया खुद को भी मैं

ना पता खुद से क्या चाहिए

सोना चाहता हूं मैं कुछ क्षण 

अब थोड़ा सा आराम चाहिए


आराम चाहिए जब चला हूं मीलों

ढूंढने जो जीवन था ही नहीं 

क्या अनचाही मंजिल पे रुक जाऊं?

मुझे अन्य राहों का ज्ञान नहीं 


प्रशान्त चौहान "अंजान"

Friday 5 May 2023

अनायास मन में आईं कुछ पंक्तियां....

 १. कुछ लम्हों ने तान छेड़ी फिर

      वो लाएं हैं उन्हें हृदय में फिर

       जिनमे है दर्द चुप्पी और निराशा।

        आशा! हां इसी के लिए यूं जी रहा था मैं

          पर अन्य शब्द में समाहित हो निरर्थक बन गई।


२. क्या तपिश का काम तपाना नहीं?

     जो जल रहा था मैं क्यूं तप न पाया?

      हैरानी है मुझे उन किस्से कहानियों पर,

       जो बखान करते हैं यूं तप कर चमक जाने का!

        

        न चमक पाया मैं इतना जलकर भी,

         क्या कोरे झूठ पे टिकी है दुनियां?

          अब इतना भी ईंधन नहीं कि जल सकूं थोड़ा।

           चमकने को थोड़ा काश जमा कर सकूं थोड़ा।


           प्रशांत चौहान "अंजान"

Saturday 15 September 2018

सब निरंतर अग्रसर हैं

कितना कुछ रह जाता है 
छूट जाता है 
और गुज़र भी रहा है 
पीछे 
न भरने वाले खड्ड मे समाता हुआ, 
एक अंतहीन खड्ड 
अंतहीन स्थान के साथ 

सब निरंतर अग्रसर हैं 
उनमे मैं भी हूँ 

जब तक हूँ,
अनेक स्मृति हैं 
बनीं हुई और बन रही 
गुज़रना इनका भी निश्चित है 

न होने पर 
अन्य की स्मृतियों में हूँ 
उनके स्मृतिलोप होने तक 
जब 
सब निरंतर अग्रसर हैं 

प्रशांत चौहान अंजान 

Saturday 8 September 2018

मुझे मुक्त कर दे

रोज़ मांगता हूँ उस से 
मुक्त कर दे 
मेरे "मैं " से 
मुझको मुक्त कर दे 
चेष्टा करता हूँ 
पर असफल हूँ 
मुझे मेरे "पर्दों " से मुक्त कर दे 
मैं रोता हूँ 
पर रोना भी एक पर्दा है
मुझ रोने से मुक्त कर दे 
तेरी वेदी पर अपने मैं को रख दूँ
विलीन कर अपने "मैं " में 
सब से मुझको मुक्त का दे 

प्रशांत चौहान "अंजान "







फोटो श्रेय - गूगल से साभार 

पतझड़ी पात

तुमने पतझड़ी पातो को देखा होगा। प्रतीत होता है, मै भी हूँ। गिर रहा हूँ, बिना ध्येय के। ना कोई प्राण शेष है अब। सिवाय निर्जीव श्वासों ...