Saturday 18 June 2016

कितने ही अरमां बसाए जेहन में
कभी तेरे अरमां ना नजर आये
बातें तो थी बहुत पर
उन्हें शब्दों में बयां ना कर पाए
शायद शब्दों से वैर रहा है
मेरी मन की बातों का
नुमाइंदगी करना चाहता था
पर जरिया ना नजर आया

Tuesday 31 May 2016

थोड़ा बोलें

जो न बोले हैं कुछ अब तक
वो भी थोड़ा बोले
चुप्पी साध रखी है अब तक
थोड़ा मुँह तो खोले
अब क्या शिखर पाना नहीं
जो ऊँचाई देख कर सिहर रहे
अंदर के पंछी से कह दो
पर को थोडा खोले
अब उडना है आसमान से
सितारों की ऊंचाई तक
कह दो अब अवरुद्धो से
पथ को यूँ ना रोके
अब चुप्पी और ना बोलेगी
चुप्पी से नाता तोडें
जो न बोले हैं कुछ अब तक
वो भी थोड़ा बोले

Monday 30 May 2016

दुख पसंद है

आँसुओं में डूबा हुआ, मैं खुद को खुद तक पाता हूँ,
हृदय पर चोट खाकर, मैं खुद को ढूंढ पाता हूँ,
कुछ जुडाव सा है, एकांत से मेरा,
दर्द लगता है कुछ अपना सा मेरा।
दलित सी है मनःस्थिति मेरी,
विस्मृत सा हूँ मैं, हूँ खुद में तन्हा,
कुछ ऐसी ही है हृदय की व्यथा।

Friday 20 May 2016

मैं एवं मेरी पीडा....

अभी अभी संध्या चली गई
रजनी को बुलावा दे गई
कुछ क्षण में तिमिर आगमन हुआ
लहर चुप्पी की बह गई
अब मैं हूँ और मेरा ध्यान है
फिर भी न पूर्ण संज्ञान हैं
और भी हैं समीप यहीं
माना वो अंजान है
सो तो सकते हैं वो सभी
हमको तो नींद नसीब नहीं
कोशिश करता हूँ मैं बहुत
पर करवटें बदलता रहता हूँ
लाख जतन कर लिए
स्वयं को कोसता रहता हूँ
जुगत लगाता हूँ बहुत
पर असमर्थ खुद को पाता हूँ
कभी कभी तो यूँ ही मैं
सहसा बडबडाता हूँ
क्या है ये और
क्यूँ मुझे खाता है?
निद्रा के वक्त भी मुझे
इतना तडपडाता है
क्या ये वो मेरे स्वप्न हैं
जो मुझको सोने देते नहीं
चुभते है मेरी आँखों में
और देते हैं अश्रुओं की नमी।
नहीं चाहता इन स्वप्नों को
यह निरा खल है
मुझे सोने न देने का
मेरा स्वयं से छल है
पर ये कपटी मन है
मोल देता है इन ख्वाबो को
कहने को तो ये मेरा है
पर आता नहीं है काबू में

Saturday 20 February 2016

पतझड़ी पात


तुमने पतझड़ी पातो को देखा होगा।
प्रतीत होता है, मै भी हूँ।
गिर रहा हूँ, बिना ध्येय के।
ना कोई प्राण शेष है अब।
सिवाय निर्जीव श्वासों के।
ना है कोई दिशा, दिशाहीन हूँ।
हवाओं के झोंके तय करेंगे मेरा भाग्य।
निश्चित ही धरातल तक है सफर मेरा।
कब तक ये झोंकेे साथ ले जाएँगे।
सफर तो खत्म होना ही था।
आकांक्षाएं धूमिल होनी ही थी।
अब निर्जीव श्वासों ने भी साथ छोड़ दिया।
हरित वर्ण न जाने कब स्याह हो गया।

Wednesday 3 February 2016

क्या सोचते हैं वो?

क्या सोचते हैं?


क्या सोचते हैं वो,
क्या कर लेंगे?
इन दो-चार बुजदिल हरकतों से,
क्या दुनिया मुट्ठी में कर लेंगे।
पता नहीं है उनको ये,
यहाँ बंदूक उगाई जाती है।
मातृभूमि पर मर-मिटने की,
लौ जलाई जाती है।
जिस देश के बाशिंदे है हम,
वहाँ सूर्य अस्त नहीं होता।
पैदा होते हैं वीर जहां पर,
वहां वीरगति पर मातम नहीं होता।
अपनो पर मरने-मिटने की,
इच्छा का ह्रास नहीं होता।
क्या सोचते हैँ वो,
क्या कर लेंगे?
इन दो-चार गीदड़ भभकी से,
क्या शस्त्र हम अर्पण कर देंगे।
भान नहीं है उनको ये,
यहाँ फौलाद बनाये जाते हैं।
वैरी के सर कलम करने के,
हथियार बनाये जाते हैं।
जिस देश में भगतसिंह रहता है,
वहां फिरंगी क्या डट पाया था?
फिर कौन है वो ?
और क्या उनकी हस्ति है?
अस्तित्व तक उनका मिट जाना है।

पतझड़ी पात

तुमने पतझड़ी पातो को देखा होगा। प्रतीत होता है, मै भी हूँ। गिर रहा हूँ, बिना ध्येय के। ना कोई प्राण शेष है अब। सिवाय निर्जीव श्वासों ...