Saturday 15 September 2018

सब निरंतर अग्रसर हैं

कितना कुछ रह जाता है 
छूट जाता है 
और गुज़र भी रहा है 
पीछे 
न भरने वाले खड्ड मे समाता हुआ, 
एक अंतहीन खड्ड 
अंतहीन स्थान के साथ 

सब निरंतर अग्रसर हैं 
उनमे मैं भी हूँ 

जब तक हूँ,
अनेक स्मृति हैं 
बनीं हुई और बन रही 
गुज़रना इनका भी निश्चित है 

न होने पर 
अन्य की स्मृतियों में हूँ 
उनके स्मृतिलोप होने तक 
जब 
सब निरंतर अग्रसर हैं 

प्रशांत चौहान अंजान 

Saturday 8 September 2018

मुझे मुक्त कर दे

रोज़ मांगता हूँ उस से 
मुक्त कर दे 
मेरे "मैं " से 
मुझको मुक्त कर दे 
चेष्टा करता हूँ 
पर असफल हूँ 
मुझे मेरे "पर्दों " से मुक्त कर दे 
मैं रोता हूँ 
पर रोना भी एक पर्दा है
मुझ रोने से मुक्त कर दे 
तेरी वेदी पर अपने मैं को रख दूँ
विलीन कर अपने "मैं " में 
सब से मुझको मुक्त का दे 

प्रशांत चौहान "अंजान "







फोटो श्रेय - गूगल से साभार 

Wednesday 5 September 2018

प्रण

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हे परम शब्द,
मेरे शब्द को अपने में स्थायित्व प्रदान कर |
समाहित कर
कि मैं गिरूं ना|
मेरी चेतना को विस्तार दे 
ताकि 
जागृत कर सकूँ 
उस परम पुंज को 
जिससे सर्जित किया है तूने 
मुझे और अन्य पुंजों को |
अपने दिव्य पुंज में 
खुद को समर्पित करने का मार्ग प्रदान कर |
विकारों की जन्मदात्री , 
मेरे अंतस के उस अंश के विध्वंश हेतु 
मुझे सहयोग प्रदान कर |
मेरे प्रण को 
अपनी उपासना का 
तुच्छ रूप समझ 
इसे संबल दे |
ढृढ़ कर मुझे 
यूँ बने रहने को |

Friday 31 August 2018

उसका भी वजूद हो ....

कितना मधुर हो सकता है ,
पाना !
जिस तरह आप सोचते हैं ,
हूबहू वैसे ही पाना |
जैसे ,
सपनो का भी वज़ूद हो |

दूर ना हो वो 
वो ख़्याली ना हो ,
उसका भी वज़ूद हो |

अनेक कहें यथार्थवादी बनो ,
न जीओ वो ,
संभव नहीं जो |

मैं ना जीऊं तो चैन नहीं !
दिल यूँ ही बेचैन सही |

मधुर रहा हैं यूँ ही जीना,
बेचैनी ने तो हक़ ना छीना |

इतना ही काफ़ी रहा ,
चूल्हा ईंधन से जलता रहा |

 प्रशांत चौहान "अंजान "









फोटो श्रेय - गूगल से साभार

Wednesday 29 August 2018

यादें


वो यादें अजीब हैं 
दर्द देती‌ं है वो 
परिचित है अभी भी 
पर अब कहाँ है ?
दुःख है बहुत 
खेद है जीने का उन्हें |

क्यूँ  ?
आखिर क्यूँ जिया मैं ?
उन्हें जो हैं अब लापता 
वीरानो में कहीं 

वो अच्छी  थी 
पर अब सोचूं  तो दर्द क्यूँ 
अजीब सी है चुभन |

फिर नहीं पा सकता हूँ माना 
फिर भी आती है हृदय को दुखाने 
बिन बताये 

मन से पूछूं ,बताओ कैसी हैं वो ?
शब्द एक "अनमोल " |
फिर क्यूँ  रोए तू 
उन्हें सोच कर |

कहता है !
वो थी कभी , पर 
अब नहीं हैं 
इसीलिए ह्रदय भी दुरुस्त नही है 
दुःखता है वो 
जब लाता है तू उन्हें 
अतीत के झरोखों से |

उन्हें वहीं तक सीमित रहने दे ......

by prashant chauhan "अंजान "



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Tuesday 28 August 2018

आँखें

ये मुझे कमजोर कर रहीं हैं 
ये कुछ आँखें हैं सपने लिए 
जो निहार रही हैं उन्हें 
हैं जो मीलों दूर 
कुछ उम्मीदें लिए |
ये सिर्फ़ मेरी नहीं हैं 

Monday 27 August 2018

अनेक से एक

लिखने को जैसे बहुत कुछ है |
विपुल भंडार जैसे भरा है कही |
पर अनेक से एक चुनना आसान नहीं| 
"एक" लिखना आसान नहीं |
शेष का क्या ?
उन्हें भी मार्ग चाहिए |
अब घुटन होने लगी है |
कहने को भौतिक रूप नहीं |
पर उनसे ना जाने कितनी हैं बड़ी |
 
प्रशांत चौहान "अंजान"

Tuesday 21 August 2018

जब देखा मैंने उसे

मैंने देखा उसे 
वो मुस्कुरा रही थी 
अपने कुछ परिचितों के साथ 
मंद मंद शीतल पवन सी 
कुछ बह रही थी आज 
वो रमणीय है 
मन में रमने वाली 
भीड़ में भी है कांति निराली 
अब क्या करुँ 
जानता नहीं एक शब्द मात्र 
शायद मै ना बन सकूँ 
हमसफ़र उसका 
शायद ना मिले उसका साथ 
पर सोचना इतना 
मुझे पीड़ा देता है अपार 
जिंदगी पहले ही बेहतर थी 
पर अब ना होगा उस बेहतरी का साथ 

प्रशांत चौहान अंजान 

Monday 20 August 2018

जैसे हो वैसा है संसार

तुम साफ हो, तो साफ़ है संसार भी 
निश्चित हो, तो निश्चित है वह 
जैसा है अंतस, वैसा  है संसार 
निर्भर है तुम पर 
की कैसा है संसार

बदलोगे, तो बदलेगा 
जैसा देखते हो, दिखेगा 
मात्र वही है ,जो तुम हो 

जैसी करनी है , वो करता है वही 
जैसा बोलोगे ,वो भी  कहेगा 
जैसा सूंघना चाहते हो ,वैसी ही महक 
जैसा रस चाहोगे , वैसा ही 
वो तुम से है 
है तुम तक ही |

पतझड़ी पात

तुमने पतझड़ी पातो को देखा होगा। प्रतीत होता है, मै भी हूँ। गिर रहा हूँ, बिना ध्येय के। ना कोई प्राण शेष है अब। सिवाय निर्जीव श्वासों ...