Saturday 20 February 2016

पतझड़ी पात


तुमने पतझड़ी पातो को देखा होगा।
प्रतीत होता है, मै भी हूँ।
गिर रहा हूँ, बिना ध्येय के।
ना कोई प्राण शेष है अब।
सिवाय निर्जीव श्वासों के।
ना है कोई दिशा, दिशाहीन हूँ।
हवाओं के झोंके तय करेंगे मेरा भाग्य।
निश्चित ही धरातल तक है सफर मेरा।
कब तक ये झोंकेे साथ ले जाएँगे।
सफर तो खत्म होना ही था।
आकांक्षाएं धूमिल होनी ही थी।
अब निर्जीव श्वासों ने भी साथ छोड़ दिया।
हरित वर्ण न जाने कब स्याह हो गया।

Wednesday 3 February 2016

क्या सोचते हैं वो?

क्या सोचते हैं?


क्या सोचते हैं वो,
क्या कर लेंगे?
इन दो-चार बुजदिल हरकतों से,
क्या दुनिया मुट्ठी में कर लेंगे।
पता नहीं है उनको ये,
यहाँ बंदूक उगाई जाती है।
मातृभूमि पर मर-मिटने की,
लौ जलाई जाती है।
जिस देश के बाशिंदे है हम,
वहाँ सूर्य अस्त नहीं होता।
पैदा होते हैं वीर जहां पर,
वहां वीरगति पर मातम नहीं होता।
अपनो पर मरने-मिटने की,
इच्छा का ह्रास नहीं होता।
क्या सोचते हैँ वो,
क्या कर लेंगे?
इन दो-चार गीदड़ भभकी से,
क्या शस्त्र हम अर्पण कर देंगे।
भान नहीं है उनको ये,
यहाँ फौलाद बनाये जाते हैं।
वैरी के सर कलम करने के,
हथियार बनाये जाते हैं।
जिस देश में भगतसिंह रहता है,
वहां फिरंगी क्या डट पाया था?
फिर कौन है वो ?
और क्या उनकी हस्ति है?
अस्तित्व तक उनका मिट जाना है।

पतझड़ी पात

तुमने पतझड़ी पातो को देखा होगा। प्रतीत होता है, मै भी हूँ। गिर रहा हूँ, बिना ध्येय के। ना कोई प्राण शेष है अब। सिवाय निर्जीव श्वासों ...