कितना कुछ रह जाता है
छूट जाता है
और गुज़र भी रहा है
पीछे
न भरने वाले खड्ड मे समाता हुआ,
एक अंतहीन खड्ड
अंतहीन स्थान के साथ
सब निरंतर अग्रसर हैं
उनमे मैं भी हूँ
जब तक हूँ,
अनेक स्मृति हैं
बनीं हुई और बन रही
गुज़रना इनका भी निश्चित है
न होने पर
अन्य की स्मृतियों में हूँ
उनके स्मृतिलोप होने तक
जब
सब निरंतर अग्रसर हैं
प्रशांत चौहान अंजान