Tuesday 21 August 2018

जब देखा मैंने उसे

मैंने देखा उसे 
वो मुस्कुरा रही थी 
अपने कुछ परिचितों के साथ 
मंद मंद शीतल पवन सी 
कुछ बह रही थी आज 
वो रमणीय है 
मन में रमने वाली 
भीड़ में भी है कांति निराली 
अब क्या करुँ 
जानता नहीं एक शब्द मात्र 
शायद मै ना बन सकूँ 
हमसफ़र उसका 
शायद ना मिले उसका साथ 
पर सोचना इतना 
मुझे पीड़ा देता है अपार 
जिंदगी पहले ही बेहतर थी 
पर अब ना होगा उस बेहतरी का साथ 

प्रशांत चौहान अंजान 

2 comments:

  1. बहुत ही खूबसूरत अल्फाजों में पिरोया है आपने इसे... बेहतरीन

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