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हे परम शब्द,
मेरे शब्द को अपने में स्थायित्व प्रदान कर |
समाहित कर
कि मैं गिरूं ना|
मेरी चेतना को विस्तार दे
ताकि
जागृत कर सकूँ
उस परम पुंज को
जिससे सर्जित किया है तूने
मुझे और अन्य पुंजों को |
अपने दिव्य पुंज में
खुद को समर्पित करने का मार्ग प्रदान कर |
विकारों की जन्मदात्री ,
मेरे अंतस के उस अंश के विध्वंश हेतु
मुझे सहयोग प्रदान कर |
मेरे प्रण को
अपनी उपासना का
तुच्छ रूप समझ
इसे संबल दे |
ढृढ़ कर मुझे
यूँ बने रहने को |
वाह्हह सकारात्मकता से भरपूर सुंदर अभ्यर्थना👌
ReplyDeletehridya se aabhar ji
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ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक ७ सितंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
प्रणाम स्वेता जी ....आपका आभार
Deleteउत्साहित हूं ...
dhanyawaad ji
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना 👏👏👏💐💐💐
ReplyDeleteji dhanyawaad aapka...
Deleteसकारात्म सोच को हमेशां संबल मिलता है मित्र।
ReplyDeleteगहन सोच विकशित होने के पथ पर हमेशा विकाशशील बनी रहती है।
उम्दा रचना।
रचते रहिए।
आपका ब्लॉग अच्छा लगा ।
dhanyawaad ji...bilkul satya kathan...
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