Wednesday 5 September 2018

प्रण

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हे परम शब्द,
मेरे शब्द को अपने में स्थायित्व प्रदान कर |
समाहित कर
कि मैं गिरूं ना|
मेरी चेतना को विस्तार दे 
ताकि 
जागृत कर सकूँ 
उस परम पुंज को 
जिससे सर्जित किया है तूने 
मुझे और अन्य पुंजों को |
अपने दिव्य पुंज में 
खुद को समर्पित करने का मार्ग प्रदान कर |
विकारों की जन्मदात्री , 
मेरे अंतस के उस अंश के विध्वंश हेतु 
मुझे सहयोग प्रदान कर |
मेरे प्रण को 
अपनी उपासना का 
तुच्छ रूप समझ 
इसे संबल दे |
ढृढ़ कर मुझे 
यूँ बने रहने को |

10 comments:

  1. वाह्हह सकारात्मकता से भरपूर सुंदर अभ्यर्थना👌

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक ७ सितंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    Replies
    1. प्रणाम स्वेता जी ....आपका आभार
      उत्साहित हूं ...

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  3. बहुत सुंदर रचना 👏👏👏💐💐💐

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  4. सकारात्म सोच को हमेशां संबल मिलता है मित्र।

    गहन सोच विकशित होने के पथ पर हमेशा विकाशशील बनी रहती है।

    उम्दा रचना।
    रचते रहिए।

    आपका ब्लॉग अच्छा लगा ।

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